जीवन के कुछ संघर्ष

                                 जीवन के कुछ संघर्ष

         

                       हमारे गुरु डॉक्टर अतुल मिश्र सर के विद्यार्थी तन्मय जी जिनके पास दो प्यारी - प्यारी आंखें होने के बाद भी वह इस खूबसूरत व रंगीन संसार को नहीं देख पाते उनके कुछ अपने अनुभव यह है कि हमें हमेशा खुश रहना चाहिए। अगर हमारे पास कुछ थोड़ा ही है तो उसमें भी हमें संतोष करना चाहिए।

                      हमारे पास सब कुछ होते हुए भी हमें लगता है कि हमारे पास कुछ भी नहीं है और जिनका अंग - भंग, विच्छिन्न रहता है वह भी सोचते हैं कि हमारे पास कुछ भी नहीं है और हम कुछ भी नही कर सकते अपने जीवन से हारा हुआ महसुस करने लगते है लेकिन उन्हीं में से कुछ तन्मय जी जैसे लोग होते हैं जो अपनी बिच्छिन्नता को ही अपना हथियार बना लेते हैं और आगे बढ़ सबके लिए मिसाल भी बन जाते हैं।
             
                    वहां मौजूद कुछ विद्यार्थी गढ को हो सकता है यह लगा हो कि तन्मय जी ने ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे हमारा जीवन प्रभावित हो लेकिन आपको बता दूं मेरे दोस्त कि उनकी उपस्थिति ही उनके हौसले और आत्मविश्वास को इंगित कर रहा था जो कि हमारे मनोबल को और दोगुने तरीके से बढ़ा रहा था। उनको देखकर हमें यह महसुस हो रहा था कि हम किस शक्ति व सामर्थ्य के स्वामी है।
           
                    आपको ज्ञात हो कि अक्सर जो चीज हमारे पास नहीं होती है या हमारे पहुंच से बाहर होती है हम हमेशा उसी का रोना रोते रहते हैं और जो हमारे पास होती है जिस पर सिर्फ हमारा हक होता है उसकी हम कद्र तक नहीं करते।
             
                    जैसे आप सोच कर देखिए कि आप किसी ऐसे समाज में रह रहे हों जहां आप के आस - पास १०० घर है और सब के पास अपनी खुद की महंगी - महंगी कारें है आप एक मात्र ऐसे हैं जिसके पास एक इक्का गाड़ी या घोड़ा गाड़ी है और आप अपने इक्का गाड़ी से ही चलते हैं। जब भी वहां के लोग आपको अपने घोड़े के प्रति प्रेम व स्नेह को देखते हैं कि कैसे आप एक जंतु को एक भाई या अपने बेटे जैसे प्यार देते हैं। वे कार धारक चाह कर भी उस निर्जीव कार को स्नेह की अनुभूति नहीं करा सकते। 
                 
        वहां मौजूद उन सभी कार धारकों की यह तिव्र इच्छा होती है कि वह भी आपके इक्का गाड़ी की सवारी करें जो कि वह चाहकर भी नहीं कर सकते। क्योंकि हमारा समाज ज्यादातर दिखावे का समाज हो गया है जिसे भी एक बार भौतिकवादी विचारों ने जकड़ा तो वह फिर उसके  जकड़न में जकड़ता ही जाता है।
               
             
                   अब आप जरा सोचिए कि वहां मौजूद 100 लोगों की इच्छा है आपका घोड़े के प्रति स्नेह देखकर कि वो घोड़ा गाड़ी की सवारी करें लेकिन आप तो अकेले ही हैं जिसकी किसी एक कार के प्रति कभी-कभी आकर्षण होता है। अब आप बताइए कि बलवान कौन? और सबसे महत्वपूर्ण कौन? आप या वो १०० लोग। आशा करता हूं कि अब आप समझ गए होंगे कि हमारे पास जो भी है हमें उसी में संतोष करना चाहिए और खुश रहना चाहिए।

              
                  अब आप जरा इस पर भी विचार कीजिए कि जो चीज आपके पास नहीं है उसके बारे में सोचकर उसकी तीव्र इच्छा रखकर अाप क्या हासिल कर लेंगे, इसके इतर आप अपना आंतरिक कलह ही बढ़ाएंगे और हमेशा चिंतित रहेंगे।इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि आप उन इच्छाओं को अपने मन के बजाय अपने दिमाग में जिवित रखिए और उसके लिए कड़ी मेहनत कीजिए।
                 
                 जैसा दक्षिण अफ्रीका देश के देगु  के ऑस्कर पिस्टोरियस ने किया। ये पहले ऐसे नकली पैर वाले एथलेटिक विश्व चैंपियन हैं जिन्होंने कई बार एथलेटिक्स में सफलता हासिल की। कई संघर्षों के बाद इन्हें पहली बार देगु में जारी एथलेटिक प्रतियोगिता में भाग लेने की इजाजत मिली। इटली की एक प्रतियोगिता में पिस्टोरियस ने 400 मीटर की दौड़ 45.07 सेकेंड में पूरी की जो इनकी सफलता की पहली सीढ़ी थी। पिस्टोरियस कहते हैं, "तब से मेरे चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान है जो जाती ही नहीं है"।
                   
                  पैराओलंपिक्स में चार स्वर्ण पदक लाने वाले पिस्टोरियस को उनकी जीन में हुई गड़बड़ी के कारण दोनों पैर खोने पड़े। यह 17 वर्ष की उम्र में 2004 में पैराओलंपिक में 200 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीेते। 4 साल बाद बीजिंग में 100, 200 और 400 मिटर का दौड़ में तीन बार गोल्ड मेडल हासिल किये।
               
                 निष्कर्षतः आपने यह देखा कि कैसे पिस्टोरियस ने अपनी चाहत या इच्छा को अपने मन में बिठाकर बार-बार दु:खी होने के बजाय अपनी इच्छा व चाहत को अपनेे दिमाग तक लाए और अपनी इच्छा व सफलता हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत व संघर्ष किए और सफल भी हुए और पूरे विश्व के लिए एक मिसाल साबित हुए। यह कई बार अपने सामाजिक व मानसिक दबावो के शिकार भी हुए लेकिन यह अपनी सफलता के प्रति सतता या निरंतरता नहीं छोड़े और अंततः सफल भी हुए।
             
                   इसी प्रकार हमारे बीच बहुत ही प्यारे प्रकृति के उपहार तन्मय जी आए थे जो सारी दुनिया को सिर्फ एक रंग में ही देख पाते है। यह हमेशा अपने मन की आंखों से सब में तरह-तरह के रंग ढूंढते रहते हैं और खुद भी खुश रहते हैं और दूसरों को भी खुश रखने का प्रयत्न करते हैं। इनका मानना है कि 'संतोषम् परम सुखम्' यानि हमारे पास जो कुछ भी है हमें उसमें ही खुश रहना चाहिए।

आपका अपना साथी
अमित बाबू
                                                                                 प्रयागराज 

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